Sunday, September 13, 2009

Manzil

हर सफ़र की कोई न कोई मंजिल होती है |
पर मेरा सफ़र मेरे यारब,
ऐसा काफिर निकला |
न जिसकी कोई मंजिल थी,
न इन्तिहां कोई |
आवारा, वीरान राहों में,
चलते रहना ही शायद मेरी नियति थी |
चाहा जो साथ कभी हमसफ़र मिले,
ऐसा नहीं नसीब मेरा कभी हुआ |
पल दो पल के साथी तो मिले हजारों
अपने मन बहलाव को |
उम्र तक साथ निभा दे ,
ऐसा मिला न कोई |
हम जिसको खोजते हैं ,यारब, घडी-घडी
वो यार हमें मिलके भीं न मिला कभी |